विश्व कप में हार का दुख तो है मगर ये भी सच है कि ऑस्ट्रेलिया की टीम मेंटल स्ट्रैंथ में बाकी टीमों से मीलों आगे हैं। उनके पास एक से ज्यादा मैच विनर है। वो किसी भी सूरत में घबराते नहीं। इंडिया ने पूरे वर्ल्ड कप में बहुत अच्छा खेला लेकिन बड़े मैच का टेम्परामेंट अभी भी ऑस्ट्रेलिया का सबसे शानदार है। इसीलिए वो छठी बार वर्ल्ड कप जीत गए और हम पूरा टूर्नामेंट में शानदार खेलने के बावजूद आखिरी पड़ाव पर फिसल गए।
मगर अच्छी बात ये है कि एक वक़्त जो टीम इंडिया Consistently semifinal में भी नहीं पहुंचती थी वो 2011 के बाद से लगातार सेमीफाइनल में पहुंच रही है। इस बार तो हम फाइनल में भी पहुंचे। जैसे हमने खेलाड़ी चार में पहुंचने को अपनी आदत बना लिया है। वैसे, हम टूर्नामेंट जीतने के भी आदि हो जाएंगे। टीमों का चरित्र बनने में, जीत का डीएनए तैयार होने में पीढ़ियां लगती है। हम उसी रास्ते पर हैं।
2003 में सचिन और 2023 में विराट। दोनों वनडे वर्ल्ड कप के दौरान भारतीय खेलाड़ी मैन ऑफ द टूर्नामेंट चुने गए। पर अफसोस इस बात का है, दोनों बार ऑस्ट्रेलिया ने हमें फाइनल हरा दिया। 2003 में 360 के टारगेट का पीछा करते हुए भारत 125 रन से हारा था। 2023 में 241 डिफेंड करते हुए भारत को 6 विकेट से शिकस्त मिली। सचिन ने 2003 वर्ल्ड कप में 673 रन बनाए थे। विराट ने वर्ल्ड कप इतिहास में सबसे ज्यादा 765 रन बना दिए। सचिन के बाद विराट को भी वर्ल्ड कप के मैन ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब फाइनल हारने के बाद नसीब हुआ। इसमें केवल टीम की गलती नही है।
नेताओं ने क्रिकेट आयोजन को भी बनिए की दुकान बना दिया। इतनी नौटंकी के कारण टीम पर अतिरित्तफ़ दबाव भी आया। टीम बहुत जल्दी रक्षात्मक हो गई। यदि ऑस्ट्रेलिया मैच हार भी जाती तो उस पर इतना दबाव न होता कि खेलाड़ी ही रो पड़े। एक फोटो दिखाकर सोशल मीडिया पर भारतीयों और कंगारुओं की संस्कृति का फर्क बताया जा रहा है। जिस को फोटो दिखाकर हम भारतीय संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं, इन्हीं को हम अहमदाबाद में वर्ल्ड कप 2023 फाइनल का न्योता देना भूल गए।
ये शख्स जो सिर पर ट्रॉफी उठाए दिख रहा है ना, इसी ने कलेजा निकाल कर 40 साल पहले लॉर्ड्स पर भारत का परचम फहराया था। खुद मिसाल बन टीम के हर खेलाड़ी में जीत के लिए जोश भर दिया था। —ये हीरो बूढ़ा बेशक हो गया लेकिन है आज भी शेर! बुजुर्गों और देश का नाम दुनिया में ऊंचा करने वालों का सम्मान भी हमारी संस्कृति का ही अभिन्न अंग है। जिन घरों में बड़े-बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता, उन औलादों को क्या कहा जाता है जानते हैं न।
धिक्कार है भारतीय संस्कृति के नाम पर दिखावा करने वालों पर! वो शखस जिसने 1983 में भारतीय क्रिकेट की नई इबारत लिखी, उसे BCCI की ओर से अहमदाबाद में वर्ल्ड कप 2023 फाइनल के लिए न्योता न दिए जाना शर्मनाक ही नहीं कपिल देव के करोड़ों प्रशंसकों का भी अपमान है। क्या ये कपिल और 83 विश्व कप विजेता टीम के अन्य सदस्यों की ओर से प्रदर्शनकारी महिला पहलवानों का समर्थन करने की सजा थी—?
पूर्व भारतीय कप्तान कपिल देव ने रिपोर्टर के सवाल ‘आप वनडे वर्ल्ड कप का फाइनल देखने स्टेडियम क्यों नहीं गए?’ इस पर कपिल ने कहा, ‘‘मुझे बुलाया नहीं गया इसलिए मैं नहीं गया।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं तो चाहता था कि 1983 की वर्ल्ड कप की पूरी विजेता टीम को बुलाया जाता तो और भी बेहतर होता। लोग कभी-कभी भूल जाते हैं।’’
ऑस्ट्रेलिया को हराने के रणनीति बना रही थी हमारे देश में लेकिन तैयारी की जगह मीडिया में ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष, हवन, काला जादू से जीतने के तैयारी चल रही थी। कोई मंत्र फूँक धर्म युद्ध का आह्वान कर रहा था। कोई पर्चा निकाल रहा था। अब वैसे भक्त सब कहाँ चले गए? पाखण्डी का दिव्य दरबार देखने वाले कहाँ है? कहाँ है मीडिया? अब दिखलाए न लाकर स्टूडियो में। सवाल पूछे है हिम्मत है तो? इस पाखंडवाद से भारत का विकास होगा? अध्यात्म अलग चीज है और कर्म अलग चीज। Australia बिना इसके भी जीत गया क्यों?
एक दूसरी तस्वीर वायरल हो रही है, जिसके माध्यम से आस्ट्रेलिया वाले बता रहे हैं कि जिस ट्रॉफी को जितने के लिए तुम लोगों ने अपनी 33 करोड़ देवी-देवताओं को लाकर खड़ा कर दिया, उस ट्रॉफी को हमलोग पैरों तले रखते हैं। जानते हो क्यों, क्योंकि जीत खुद पर विश्वास, उचित निर्णय और कार्य से आता है न कि द्वेष, अपमान, अंधविश्वास, पाखंडवाद से।
ऑस्ट्रेलिया में खेल को जुनून की तरह लिया जाता है। मात्र 2.65 करोड़ जनसंख्या वाले देश में केवल सिडनी में छोटे, बड़े सौ स्टेडियम है। देश में क्रिकेट के लिए 27 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मैचों के लिए स्टेडियम है। मेलबॉर्न शहर में 11 बड़े स्टेडियम है। पार्कों में खेलने की पर्याप्त सुविधाएं हैं और सभी मुफ़्त। वहां के कुछ स्टेडियम, टूरिस्ट स्पॉट हैं। तो खेल तो वही खेलेंगे? आज गांवों में खेलने की कोई जगह नहीं है। कोई खेल मैदान नहीं छोड़ा गया है।
बढ़ती आबादी, सड़कों पर बसने लगी है और आप हवन की नौटंकी से खेल जितना चाहते हैं? क्रिकेट जैसे ग्लैमर वाले खेल की बात छोड़िए, बाकी खेलों के खेलाड़ियों के लिए सुविधाएं नहीं, मैदान नहीं, मुफ्रत कोचिंग की व्यवस्था नहीं। ऊपर से सोर्स और जातिवाद का कोढ़? खेल के विकास के लिए निष्पक्ष, समर्पित, देशभत्तफ़ चरित्र चाहिए, जो फिलहाल नहीं है।