Bebaak Media Network

Created with Fabric.js 5.2.4

Bebaak Media Network

Hamari Aawaj Aap Tak

स्वाधीनता-संघर्ष का आंखों-देखा हाल

इस संस्मरण को मेरे बड़े बाबूजी दिवंगत शिवलगन प्रसाद जी, जो सन् 42 के अगस्त क्रांति के समकालीन पटना साइंस कॉलेज के छात्र थे तथा तत्कालीन छात्र-आंदोलन में खुलकर भाग लिये थे, बम्बई के नौ-सेना विद्रोह में भी वे शामिल हो चुके थे, (आजादी के बाद उन्होंने जिला निबंधक पद को सुशोभित किया था। सेवा-काल में ही उनका देहान्त 1973 में हो गया था) ने स्वाधीनता संघर्ष का आंखों-देखा हाल कुछ इस तरह सुनाया था जिसे मैं ज्यों का त्यों रख रहा हूँ-

देशभर में दर्जनों राष्ट्रीय नेताओं को ‘भारत रक्षा कानून’ के तहत गिरफ्तार कर भिन्न-भिन्न जेलों में डाल दिया गया

बकौल बड़े बाबूजी- ‘‘9 अगस्त सन् 1942 को बम्बई में कांग्रेस कार्यकारिणी के ‘करो या मरो’ प्रस्ताव पारित करते ही गाँधी जी, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, मौलाना आज़ाद साहब सहित देशभर में दर्जनों राष्ट्रीय नेताओं को ‘भारत रक्षा कानून’ के तहत गिरफ्तार कर भिन्न-भिन्न जेलों में डाल दिया गया। 9 अगस्त को ही बीमारी की हालत में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को भी बांकीपुर जेल में डाल दिया गया। इस सबके विरोध में पूरे देश में हड़तालें और सभाएं शुरू हो गयीं।

भारतीयों द्वारा बगावत की घोषणा

सदाकत आश्रम से बीमारी की हालत में राजेन्द्र बाबू को कैद करने से आम जनता, खासकर छात्र-वर्ग बहुत ही नाराज था, क्योंकि अस्वस्थता के कारण राजेन्द्र जी बम्बई सम्मेलन में भी भाग लेने में असमर्थ थे। इसी बीच भारत सचिव मि- एमरी द्वारा बी-बी-सी से ‘भारतीयों द्वारा बगावत की घोषणा’ प्रसारित करते ही पूरा देश उबलने लगा।

पटना विश्वविद्यालय के अहाते में छात्रें की विशाल सभा हुई और हम सभी छात्र गोरी सरकार विरोधी नारे लगाते हुए बांकीपुर जेल के पास पहुंच गये। आगे कारवां बढ़ता गया और जुलूस राज्यपाल भवन तक जा पहुंचा। प्रतिक्रिया स्वरूप अगले दिन 10 अगस्त को सदाकत आश्रम और बिहार विद्यापीठ को खाली करने का हुक्म जारी हुआ।

हमने पटना नहीं छोड़ा बल्कि 11 अगस्त को पहले पटना मेडिकल कॉलेज के भवन पर तिरंगा फहराया। फिर सिटी कचहरी पर भी तिरंगा फहरा उठा। सचिवालय की तरफ जुलूस न बढ़ने पाये, इसके लिए पुलिस और विशेष गोरखा टुकड़ी भारी मात्र में तैनात कर दी गई। इसके बावजूद जुलूस बढ़ता गया।

लाखों लोग पटना स्टेशन से पश्चिम हार्डिग पार्क तथा आगे तक पहुंच गये

11.30 बजे सैनिकों के आक्रामक विरोध के बाद भी लाखों लोग पटना स्टेशन से पश्चिम हार्डिग पार्क तथा आगे तक पहुंच गये। पटना का अंग्रेज कलेक्टर डब्ल्यू जीआर्चर गोरखा फौज द्वारा विधान सभा फाटक के सामने बढ़ते लोगों को गिरफ्तार करवाने में लगा था।

आखिर, 2.15 बजे सचिवालय के पूर्वी फाटक पर तिरंगा फहरा उठा, जिसे गोरखा सैनिकों ने उतार दिया। अंततः ढ़़ाई घंटे के संघर्ष के बाद छात्रें की टोली घेरा तोड़कर भीतर घुस पड़ी। गोली चलने लगी। फलतः आगे हाथ में तिरंगा पकडे़ बढ़ रहा छात्र गोली लगने से धराशायी हो गया। उमाकान्त सिंह नामक उस छात्र को तुरंत पी.एम.सी.एच पहुंचाया गया।

इधर, गोरखा सैनिकों के साथ संघर्ष जारी था। दूसरी गोली जगपति कुमार को लगी। इस तरह पांच छात्र मौके पर ही शहीद हो गये और उमाकान्त तथा रमाकान्त सिंह अस्पताल में शहीद हुए। 13-14 चक्र गोलियां चली थी जिससे 20 अन्य लोग भी घायल हुए।

इसी दौरान दानापुर से भारी संख्या में ब्रिटिश फौज पहुंच गयी। संयुक्त सेना का दमनचक्र शुरू हुआ। जनता भयभीत हो उठी और जुलूस बिखर गया। जिसे जहां जगह मिली रूपोश हो गया। हमें भी मीठापुर मुहल्ले में एक विधवा के घर शरण मिली।

गमछे के अभाव में हमें उजली साड़ी की पगड़ी बांधनी पड़ी

उस समय हम दो ही छात्र साथ थे- सूरज प्रसाद और मैं। (सूरज बाबू बाद में बिहार की राजनीति में सीपीआई से जुड़ेे) फिर भी अधिक देर तक निरापद नहीं रह सकते थे। वहां से सुरक्षित निकालने के लिए उस वृद्ध विधवा माता ने हमें अपने सेवक के धोती-कुर्ते पहना दिए। गमछे के अभाव में हमें उजली साड़ी की पगड़ी बांधनी पड़ी।

…और इस तरह हम पूरे देहाती व्यापारी बन, सिर पर टीन का कनस्तर और बोरे का गठ्र लेकर पटना से निकल पड़े। दानापुर और बिहटा में हमसे पूछताछ हुई। लेकिन हम पुनः अंग्रेजों को चकमा देकर बच निकले। अब हमारे कार्य करने का तरीका बदल गया, क्योंकि जनता भयभीत होकर खुलेआम क्रांति में भाग लेने से हिचकने लगी। लेकिन छात्र-कार्यकर्ता डटे रहे।

क्रांति की चिंगारी को प्रज्जवलित रखने के लिए किशोर युवा कार्यकर्ता अपनी जान हथेली पर लेकर निरन्तर गांव-गांव का चक्कर लगाने लगे। इसी दौरान हमने पूर्व रेलवे की रेल-पटरी, रेलवे-स्टेशनों, थानाें और सरकारी कार्यालयों की काफी क्षति पहुंचाई।

हमारे प्रमुख सहयोगी सूरज प्रसाद तथा नेतृत्वकर्ता अम्बिका शरण सिंह थे, जो बाद में राजनीति में चले गये। अंग्रेज जासूस अंबिका बाबू तथा उनकी टोली का अड्डा कुत्तों की तरह सूंघ रहे थे। अतः हमें अपना कार्यक्रम बदलना पड़ा।

गोरे जासूसों को भनक लग गयी

हमारा कार्यक्षेत्र आरा से डुमरांव, नावानगर और जगदीशपुर के चारों तरफ था। गोरे जासूसों को भनक लग गयी कि बागियों का अड्डा कुछ दिनों से उत्तरदाहां गांव के पास है। दरअसल, हमारा गांव उत्तरदाहां, पूर्व रेलवे के बनाही स्टेशन से 4-50 कि-मी दक्षिण और सड़क मार्ग जगदीशपुर (बाबू कुंवर सिंह) से 8 कि-मी पश्चिमोतर सुदूर देहात में स्थित है।

आवागमन का कोई सुलभ साधन नहीं। साथ ही, दोनों स्थानों से आने पर बीच में एक नदी मिलती है जिसमें जून-जुलाई से सितम्बर-अक्टूबर तक बाढ़ रहती है। नाव का तब भी इन्तजाम नहीं था। इन्हीं कारणों से बागियों के लिए यह सुरक्षित ठिकाना था। हमारे आम के बगीचे के उत्तर में विशाल ईमली का पेड़ था।

https://youtu.be/CtMulnjOblY
तब सितम्बर के आखिरी दिन थे

एक तो खुली जगह और तीन दिशाओं में एक-एक कि-मी दूर तक देखने की सुविधा के चलते दल के सदस्य वहीं ठहरते थे। बिछाने के लिए जूट और टाट का चट्ट तथा खाने के लिए सत्तू, फरही-भूंजा तथा सत्तूवाला लिट्टी ग्रामीणों की तरफ से उपलब्ध था। तब सितम्बर के आखिरी दिन थे।

पिछली रात अंबिका बाबू आये थे और अगले रोज मनुडिहरी गांव के महानंद सिंह, हेतमपुर गांव के ललन सिंह जैसे दर्जनों साथियों के साथ हम नावानगर चले गये। वहां से हमें डेहरी आनसोन जाना था। हमलोगों के चले जाने के बाद सुबह 10 बजे के करीब हमारे बगीचे के पास कुंआ पर एक आदमी (नगीना महतो) ओल धो रहे थे।

…तभी एकाएक उनकी नजर सशस्त्र अंग्रेजों के घोड़ों पर पड़ी जो उत्तर दिशा से बागियों की खोज में आ रहे थे। लेकिन अभी वे एक फर्लांग दूर थे। नगीना महतो ओल धोना छोड़कर वे दौड़ पडे़ और गोरे अंग्रेजों के आने की सूचना चारों तरफ फैला दी।

देखते-देखते पूरा गांव वीरान हो गया। लोग ईख और अरहर के खेतों में जा छिपे। दरअसल, उस दौर में अंग्रेजों ने इतनी दहशत फैला दी थी कि हिन्दुस्तानी ग्रामीण उनके सामने पड़ना ही नहीं चाहते थे।

टोकरी में रखे ओल को फल समझकर उस पर टूट पड़े

इधर, अंग्रेज सैनिक लस्त-पस्त थे क्योंकि सितम्बर का उमस भरा दिन तथा मार्ग भटक जाने से उन्हें बहुत पैदल चलना पड़ा था। कुंआ बगीचे से सटा था अतः वहां पर शीतलता थी, सो अंग्रेज सैनिक वहीं सुस्ताने लगे। भूखे तो थे ही, टोकरी में रखे ओल को फल समझकर उस पर टूट पड़े।

अंग्रेजों ने नदी की तरफ चर रहे तीन-चार गदहों को गोली मार दी

कुछ ही देर में ओल ने कमाल दिखाना शुरू किया। अब वे मुंह की खुजली से परेशान हो उठे। गुस्से में उछलते वो गांववालों को खोजने लगे। पर, जब आस-पास कोई नहीं मिला तो उन्होंने नदी की तरफ चर रहे तीन-चार गदहों को गोली मार दी।

अपने दुर्भाग्य और उनके सौभाग्य से एक बूढे़ सज्जन उन्हें मिल गये। बस, क्या था बटों और बूटों से उनकी मरम्मत होने लगी। फिर उन्हें कुंआ के पास ले जाकर इशारे से समझाया कि टोकरी में रखा लाल फल उन्होंने खाया है।

उस वृद्ध ने किसी तरह कुछ ईमली का फल तोड़कर उन्हें खाने के लिए दिया, तब जाकर उनकी खुजली और बेचैनी कम हुई। बेचारे अंग्रेज सैनिक गांववालों की तलाश छोड़कर वापस लौट गये और उस दिन के बाद फिर उत्तरदाहां में अंग्रेजी टुकड़ी नहीं आई।’

M.K. Singh