श्रीलंका में जनता राष्ट्रपति भवन में घुस चुकी है। कई जगह हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। पुलिस ने प्रदर्शन कारियों पर पुलिस ने फायरिंग भी की है। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे भाग गए हैं। अब श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रम सिंघे इस्तीफा दे चुके हैं। अब श्रीलंका में सर्व दलीय सरकार बनेगी। स्पीकर अंतरिम राष्ट्रपति बनेंगे।
ऐसे दृश्य निकट भविष्य में आपको अपने आँगन में भी देखने को मिल सकते हैं क्योंकि श्रीलंका में इसी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने धर्म और सिंहली राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों का एक दशक तक भावनात्मक शोषण किया। धार्मिक ध्रुवीकरण के बल पर इन्हें चुनावों में प्रचंड बहुमत मिला।
राष्ट्रपति चुनाव में गोटाबाया राजपक्षे ने 52.25 प्रतिशत मत प्राप्त कर अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 13 लाख मतों से हराया था। इन्हें उन क्षेत्रों में भारी हार का सामना करना पड़ा जहां अल्पसंख्यक हिंदू और मुस्लिम की बड़ी आबादी रहती हैं। बुद्धिजीवी लोग पहले ही चेतावनी दे रहे थे कि यह तीव्र धार्मिक/सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के देश के लिए खरतरनाक होगा। और अब वही हुआ।
भारत की तरह वहां भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भूत सवार था। श्रीलंका की इसी सरकार ने सिंहली बौद्ध लोगों की सामूहिक चेतना में यह बसा दिया था है कि गोटाबाया राजपक्षे को वोट देने का मतलब विदेशी प्रभुत्व से श्रीलंका को मुक्त करने और देश की स्थिरता और स्वतंत्रता को वोट देना है।
ऐसे ही कुछ राजनीतिक सामाजिक बहुमतवाद के प्रभाव/दुष्प्रभाव हमारे देश में है जहां सत्तारूढ़ सरकार धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, महंगाई, जवानी, किसानी इत्यादि को दरकिनार कर बहुसंख्यक जनता को मंदिर-मस्जिद में उलझाए हुए है। हमारे देशवासियों को श्रीलंका के गंभीर प्रभावों को समझ कर उससे सीखना होगा।