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Hamari Aawaj Aap Tak


बिहार की राजनीति का ककहारा हर कोई पढ़ ले यह संभव नहीं, तो फिर उस बिहार की राजनीति को बिहार से बाहर कोई बिसात क्या डिगा सकती है? क्योंकि बिहार में राजनीति को समझना और बिहारी नेताओं के एक-एक चाल से कई बार दिल्ली मात हुई है। खासतौर से नीतीश और लालू की जोड़ी और इनकी अपनी राजनीतिक बिसात एक-दूसरे के खिलाफ भी खड़ी हुई और एक दूसरे के साथ भी बनी है।

इस बिसात को लेकर दिल्ली ने ये पहली बार महसूस कर लिया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अगर बिहार की राजनीति को अपने अनुकूल नहीं किया तो फिर एक बड़ा झटका उस BJP को लग सकता है जो खड़ी तो कमंडल के आश्रय है और मंडल की बिसात को वह अपनी गरीब की परिभाषा से बदलने पर आमादा हो चली है। …और उसके पास चेहरा नरेंद्र मोदी का है बावजूद इसके बिहार का message कहीं इतना बड़ा तो नहीं हो जाएगा जो इस पूरे के पूरे क्षेत्र में मंडल की राजनीति के तहत एक झटके में BJP को खारिज कर दे ?

इस बिसात का एक दूसरा चेहरा है नीतीश कुमार। यह सवाल इसलिए बड़ा हो चला है कि जनता दल united में कोई tweet दिल्ली से आएगी या पटना से ही उसकी आवाज़ सुनाई देगी। नीतीश कुमार अगर अपने तौर पर फ़ैसला नहीं ले पाते हैं तो क्या वाकई बिहार में राजनीतिक घटनाक्रम हर हाल में 5 जनवरी से पहले बदलते हुए दिखाई देंगे?

5 जनवरी का ज़िक्र यहां पर ED के आए उस Notice को लेकर है जो तेजस्वी यादव को मिला तीसरा Notice है। यह नहीं भूलना चाहिए कि Deputy CM का पद कोई संवैधानिक पद नहीं होता है, वह तो अपनी Hierarchy के लिहाज से चलता है। लेकिन मुख्यमंत्री का पद इस लिहाज से बड़ा महत्वपूर्ण होता है कि समूचे राज्य की राजनीति को किसी बाहर की बिसात ने डिगा दिया।

तो क्या वाकई 5 जनवरी से पहले तेजस्वी यादव को लेकर लालू यादव कोई नए सपनों को संजो रहे हैं? …और दिल्ली के सपनों में नीतीश कुमार 2024 की बिसात बिछाते हुए उन्हें उनके अनुकूल दिखाई देने लगे हैं। …और क्या इसीलिए BJP के विधायकों को लेकर यह सवाल बड़ा हो चला है उनकी खामोशी? जनता दल united या नीतीश कुमार को लेकर टीका-टिप्पणी उस राह को पकड़ चुकी है जिसके आश्रय अब media को narrative बनाना है जिसका ज़िक्र बार-बार जनता दल united के भीतर से हो रहा है।

तीन बातों पर ध्यान रखिए। पहली बात जनता दल united का मतलब सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार हैं। ललन सिंह जो भी कह लें, कोई महत्व नहीं है। दिल्ली में केसी त्यागी कुछ भी कह लें, कोई महत्व नहीं हैं। जैसे एक वक्त George Fernandes का कोई महत्व नहीं बचा, एक वक्त शरद यादव का कोई महत्व नहीं बचा, एक वक्त RCP सिंह का कोई महत्व नहीं बचा तो फिर ललन सिंह इस बिसात पर कहां टिकते हैं?

दूसरी बात, नीतीश कुमार की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा India के जरिए की जा रही है और India को लेकर वह अपने सौदेबाजी के दायरे को बहुत बड़ा कर चुके हैं और यह संकेत BJP को वो दिल्ली से देना चाहते थे। क्योंकि दिल्ली में बैठी कांग्रेस को अगर लगता है कि इस बार CM नीतीश को PM का पद नहीं देंगे, तो क्या यह वापसी सौदेबाजी का सन्देश है जिस बिसात पर BJP और नीतीश कुमार दोनों खड़े हैं।

तीसरी परिस्थिति, RJD से जाकर जुड़ती है जो कि सबसे बड़ी ताकत के साथ बिहार में मौजूद है और राजनीतिक सौदेबाजी में उस वक्त BJP को छोड़कर नीतीश कुमार RJD के साथ खड़े हुए। अब उसके बाद Social Eengineering की परिभाषा और मंडल की जिस परिभाषा को दोनों ने मिलकर गढ़ा था, एक झटके में वह लोकसभा चुनाव में अगर पूरे तरीके से धराशाई हो गई तो फिर 2025 के विधानसभा चुनाव में ना नीतीश बचेंगे ना लालू बचेंगे। यह बात और ऐसी बिसात दिल्ली में बैठकर BJP बिछा चुकी है।

यहां पर इन सवालों को थोड़ा और Decode किया जाए उससे पहले यह समझना होगा कि यह सवाल क्यों पनप रहे हैं और खासतौर से Media में यह क्यों गूंजने लगे और जिस पर खामोशी बरतने की कोशिश बहुत तेरे तरीके से जनता दल United के नेताओं ने क्यों की? क्योंकि JDU में नीतीश कुमार का निर्णय महत्वपूर्ण होगा।

अगर जनता दल United के भीतर नीतीश कुमार की राजनीति को समझें तो नीतीश कुमार किसी भी निर्णय को लेने से पहले समूची ताकत अपने हाथ में रख लेते हैं। यानी party के भीतर कोई दूसरी राह किसी भी हाल में नज़र ना आए और party के भीतर जो चल रहा है उसी के हिसाब से नीतीश कुमार एक ऐसा निर्णय ले, लें जिसके बाद समूची party उनके पीछे चले।

इस वक्त जनता दल united के साथ जो 43 MLA हैं। ध्यान दीजिए तो यह RJD और BJP से कम हैं। वह दोनों तो 75 और 74 MLA के साथ खड़े हैं। यह पहला सवाल इसलिए बड़ा महत्वपूर्ण है कि सौदेबाजी जनता दल united के नाम पर किसी MLA को यह ताकत नहीं दी जाएगी कि वह कोई ऐसा निर्णय लें जिससे नीतीश की राजनीति खत्म हो जाए, यह संभव नहीं है। यह पहला message बहुत साफ है।

दूसरा message दिल्ली की बिसात से निकल रहा है और जो RJD को परेशान कर रहा है। क्योंकि RJD जब 2020 के विधानसभा के चुनाव हुए थे, उस वक्त एक बड़ी ताकत और एक बेहतरीन शख्सियत के तौर पर तेजस्वी यादव निकल कर आए थे। लेकिन राजनीतिक सौदेबाजी का दायरा उस दौर में भी यही था कि तेजस्वी मुख्यमंत्री बनेंगे और मुख्यमंत्री बनने का मतलब यह था कि 75 MLA जीतने के बाद जब वह मुख्यमंत्री बनेंगे तो आने वाले वक्त में बिहार की राजनीति को अपने तरीके से परिभाषित करेंगे जैसे एक वक्त लालू यादव करते चले आए थे।

लेकिन इस दौर में जब विपक्ष की एक जुटता का सवाल आया और उसमें नीतीश पिछड़ते हुए दिखाई दिए। लालू यादव की मेहनत-मशक्कत अपनी राजनीति को साधने को लेकर ज़्यादा नीतीश कुमार को नज़र आने लगी। जैसे राहुल गांधी का लालू यादव के घर पहुंच कर mutton बनाना और mutton खाना ही क्यों ना हो, लेकिन congress के भीतर एक बड़ी मोटी लकीर जो निकली उसकी सुरसुराहट पटना और नीतीश कुमार के कानों में भी सुनाई देने लगी कि नीतीश कुमार तो पलट सकते हैं, किसी भी मौके पर।

लेकिन दूसरी, तरफ लालू यादव कभी नहीं पलटेंगे और वह हमेशा से साथ रहेंगे। खासतौर से यह सवाल तब बड़ा हुआ, जब संघ को निशाने पर लेने के लिए राहुल गांधी निकल पड़े। इस दौर में अगर और पन्नों को खोलिएगा तो गाहे-बगाहे वाजपेयी सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी का गुणगान करने से नीतीश कुमार चूकते नहीं हैं। तो क्या लालू यादव को यह लगने लगा कि ऐसी परिस्थितियां आयेंगी जब दिल्ली की बिसात जनता दल united को तोड़ सकती है?

अपने अनुकूल सियासत को लाने के लिए नीतीश कुमार के सामने राजनीतिक सौदेबाजी का दायरा इस रूप में बड़े तौर पर रखा जा सकता है। जहां पर RJD या तो JDU को पूरी तरीके से अपने साथ ले ले यानी दोनों merger की स्थिति में आ जाए। जो कि आने वाले वक्त में उस राजनीति को साधे और पाटे जब एक वक्त लालू और नीतीश एक साथ हुआ करते थे और इस दौर में दोबारा से उस राजनीति को ज़िंदा करें जो कि उत्तर प्रदेश में संभव नहीं हो पाया। यानी मंडल से निकली हुई राजनीति जो बिहार में चली।