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Hamari Aawaj Aap Tak

आरएसएस के गुप्त एजेंडा को रामविलास पासवान जी ने ‘न्यायचक्र’ में प्रकाशित किया था

दिल्ली से प्रकाशित ‘न्यायचक्र ‘ नामक पत्रिका जिसके सम्पादक भारत सरकार में मंत्री रहे मा ० रामविलास पासवान जी थे, के संयुक्तांक (15 फरवरी से 14 अप्रैल, 1994) में आरएसएस का गुप्त एजेंडा प्रकाशित हुआ था।

इस गुप्त पत्र को विधायक रविन्द्र सिंह ने राष्ट्र-विरोधी पत्र के रूप में संज्ञान लिया और भारतीय संविधान के तहत 18.10.2013 को अनुरोध-पत्र भेजकर महामहिम तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय से अनुरोध करते हुए इसे ‘भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए साम्प्रदायिक फासीवाद सबसे बड़ा खतरा’ बताया और राष्ट्रहित में इससे निजात पाने का निवेदन किया।

‘गुप्त दस्तावेज’ के खिलाफ संज्ञान लेने के बजाय माननीय हाईकोर्ट ने इस याचिका को 6 दिसम्बर, 2016 को खारिज कर दिया

उक्त गुप्त दस्तावेज के खिलाफ संज्ञान लेने के लिए विधायक रविन्द्र सिंह ने माननीय हाईकोर्ट पटना में एक जनहित याचिका वाद संख्या-8205/2015 को दायर किया। माननीय न्यायालय ने इस याचिका को बिना विमर्श दिनांक 6 दिसम्बर, 2016 को खारिज कर दिया।

तब विधायक रविन्द्र सिंह ने हाईकोर्ट के सभी दस्तावेजों के साथ सुप्रीमकोर्ट में Special Leave Petition No – 3974 / 2017 दिनांक 23 जनवरी, 2017 को संविधान की धारा 136 के तहत रविन्द्र सिंह बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, मोहन भागवत और प्रधान संपादक ‘न्यायचक्र’ पर वाद दायर किया।

उक्त वाद को ’21 वर्ष पुराना’ और ‘न्यायालय का समय बर्बाद करने’ का आरोप लगाकर ’10 लाख का जुर्माना’ लगाया

तीन घंटे तक माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बहस सुन कर उक्त वाद को ’21 वर्ष पुराना’ कहकर विधायक के ऊपर ‘न्यायालय का समय बर्बाद करने’ का आरोप लगाकर ’10 लाख रुपये का जुर्माना’ घोषित कर दिया। अगर, यह वाद माननीय सुप्रीम कोर्ट में संज्ञान के योग्य नहीं था, तो हाईकोर्ट पटना की भांति इसे खारिज कर देना चाहिए था।

इसी तरह पिछले साल देश के प्राकृतिक वातावरण के संभावित हानि पर किए एक ‘जनहित याचिका’ के लिए अभिनेत्री जूही चावला पर लाखों का ज़ुर्माना लगा था।

अदालतें याचिका दायर करने पर ज़ुर्माने लगाएंगी तो इसे लोकतंत्र की तकनीकी असफलता के रूप में क्यों न देखा जाए?

…और अब छत्तीसगढ़ में आदिवासी कार्यकर्त्ता पर सालों पहले हुई हत्याओं की न्यायिक जाँच के लिए दायर ‘जनहित याचिका’ पर 5 लाख का ज़ुर्माना लगाया है। अदालतें याचिका दायर करने पर ज़ुर्माने लगाएंगी तो इसे लोकतंत्र की तकनीकी असफलता के रूप में क्यों न देखा जाए? जिस देश में एक बड़ी, बहुत बड़ी आबादी अनपढ़ और कमज़ोर है और जिसके साथ शासन अन्याय करता हो उसके साथ न्याय कैसे होगा?

छत्तीसगढ़ में 16 आदिवासी एक मुठभेड़ में मार दिए गए। आरोप ये भी है कि तभी इस बच्चे की उँगलियाँ भी काट दी गईं थीं। उसी वक्त जाँच के लिए आदिवासी एक्टिविस्ट Himanshu Kumar ने साल 2009 में एक याचिका डाली। कल 13 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को ख़ारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर 5 लाख का जुर्माने का आदेश दे दिया।

याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार जाँच चाहते थे जबकि, सुप्रीम कोर्ट ने उनपर पर 5 लाख का जुर्माना ही लगा दिया

ये हत्याएँ छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के वक्त हुईं थीं। याचिकाकर्ता जाँच चाहते थे। सुप्रीम कोर्ट ने ना केवल याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार पर 5 लाख का जुर्माना लगाया, बल्कि छत्तीसगढ़ सरकार से उन पर एक केस करने का आदेश भी दिया है।

यहाँ Interesting बात ये है कि ये आदेश जस्टिस खानविलकर की बेंच ने दिया है। इन्होंने ही पिछले महीने गुजरात दंगों की दोबारा से जाँच करने की माँग करने वाली zakiajafri की याचिका को भी ख़ारिज किया था। ना केवल ख़ारिज किया था बल्कि सेम पैटर्न पर याचिका डालने वाली एक्टिविस्ट Teesta Setalvad के लिए कहा कि वे इस मुद्दे को अपने लिए भुना रही हैं अतः उनपर कार्रवाई हो।

जनहित याचिकाकर्ताओं पर इतना भारी जुर्माना लगाया जा रहा है कि आगे कोई पीड़ितों के लिए लड़ने की सोचे भी नहीं

अगले ही दिन गुजरात सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। मतलब याचिकाकर्ताओं को ही अब टार्गेट किया जा रहा है। इतना भारी जुर्माना लगाया जा रहा है कि आगे कोई पीड़ितों के लिए लड़ने की सोचे भी नहीं।

अदालतों में बार-बार साबित हुआ है कि छत्तीसगढ़ के सरकारी तंत्र ने मोटिवेटेड हत्याएँ की हैं, ज़मीन हथियाई है, लोगों को विस्थापित किया है, बलात्कार किए हैं। यानि सरकारी तंत्र सिर्फ़ सरकारी तंत्र हो जाने के कारण सवालों के घेरे से बाहर नहीं हो जाता।

भावनाएँ आहत होने और सरकारी तंत्र की अवमानना संबंधी सारे कानून रद्द होने चाहिए। किसी भी केस में अगर न्याय के लिए याचिका दायर हो तो उस व्यक्ति पर ज़ुर्माना लगाना लोकतंत्र की मूल अवधारणा की हत्या है। सरकार पर सवाल करने वालों को दबाना अब संस्थानिक हो गया मालूम पड़ता है।