अनंत यात्रा क्रम में अपने गर्भ में हजारों शहीदों के शौर्य की स्मृति समेटे स्वतंत्रता दिवस के 75 वें वर्ष का सूरज ढल गया। 76 वें वर्ष का बाल रवि अनेकों सवालों के साथ क्षितिज पर ऊपर उठ रहा है लेकिन ऐसा नहीं लगता कि आजादी का यह 76 वां अरुणोदय भी अभ्यांतर को आह्लादित कर पायेगा।
यह सच है कि बागियों के योगदान को आधुनिक इतिहास में नकारा गया
कहीं ऐसा तो नहीं कि, जिन शहीदों की शहादत ने गुलामी का ताक तोड़कर आजादी का मार्ग प्रशस्त किया था, उनके प्रति हमसे कोई अक्षम्य अपराध हो गया हो और इसी कारण स्वतंत्रता देवी का आरुनिक अधर उदास रहता हो? यही सच है …और यह भी सच है कि बागियों के योगदान को आधुनिक इतिहास में नकारा ही नहीं गया बिल्क जीवित बागियों तथा शहीदों के नौनिहालों की उपेक्षा की गई।
हमारी नई पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि उनके पास प्रेरक, आदर्श नेताओं का अभाव है। क्रांतिकारी विरासत का धनी तथा बगावत का आश्रय स्थल जगदीशपुर वह स्थान है, जिसके वक्षस्थल पर अनेकों रणबांकुरों ने एक नया इतिहास सृजित किया है। यह वह स्थान है जिसका कोई सानी नहीं।
इसके गौरवमयी इतिहास के सीने में छिपा है अपने आन, बान और शान पर हंसते – हंसते मर- मिटने वाले शूर वीरों की स्मृति, जो प्रेरित करता है स्वतंत्रता प्रेमी देश के सपूतों को, आमंत्रित करता है देश-विदेश के पर्यटकों को …और सुनाता है अतीत की गौरव गाथा अपनी मूक भाषा में।
पीर अली जैसे शहीदों की हिंदू-मुस्लिम एकता, दुनिया के इतिहास में एक कहानी रची गई
वीरों के इस पावन उर्वरा भूमि का चप्पा-चप्पा बलिदानियों के रक्त से सिंचित है। यह वह वीर भूमि है जिसके कण-कण से शेख घसीटा, राहत अली, अली करीम जैसे सरफरोशिओं की स्वर लहरी की अनुगूंज साफ सुनाई देती है। 80 वर्षीय युवा, वीर कुंवर सिंह की जवानी, अमर सिंह की रणशैली और पीर अली जैसे शहीदों की हिंदू-मुस्लिम एकता, दुनिया के इतिहास में एक कहानी रची गई।
बावजूद इसके, एक पेड़ आज भी पहचान का मोहताज बना हुआ है जिस पर 37 वर्षीय हरे कृष्ण सिंह (ग्राम बराढ़ी निवासी हरि किशन सिंह) को फांसी दी गई थी। 1857 के स्वाधीनता संग्राम के विफलता के बाद कुंवर सिंह के अनुज अमर सिंह के नेपाल चले जाने के बाद हरे कृष्ण सिंह उनसे नहीं मिल सके।
फिर भी निराश होने के बजाय वे फकीर के वेश में बागियों को एकत्रित करने के क्रम में सारण जिले के नीनी ग्राम में दरोगा सिंह द्वारा पहचाने जाने पर, छद्म वेश में निकल जाने में सफल रहे। लेकिन बनारस के दिनहो ग्राम में 29 अगस्त 1859 को उसाह के नवाब के कोतवाल द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर मुकदमा चलाया गया।
जगदीशपुर के चौक पर ले जाए जाएं तथा जब तक उनका अंत ना हो जाए, तब तक वह फांसी पर लटकाए जाएं
स्थानापन्न जज और प्रविधि 14/ 1857 के अनुसार नियुक्त शाहाबाद के विशिष्ट कमिश्नर आरजे रिचर्डसन ने आरा में 17 दिसंबर 59 को अपना फैसला सुनाया- “आरा जेल से जहां संप्रति वे कैदी के रूप में है। अपने क्रूर कर्मों के लिए घटनास्थल जगदीशपुर के चौक पर ले जाए जाएं तथा जब तक उनका अंत ना हो जाए, तब तक वह फांसी पर लटकाए जाएं। कैदी हरे कृष्ण सिंह की संपत्ति सरकार ने पहले ही जब कर ली है। इसलिए उस संबंध में किसी तरह के नए आदेश की आवश्यकता नहीं है।”
इस फैसले के अनुसार, हरे कृष्ण सिंह को जिस पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई थी तथा लोगों को आतंकित करने के लिए फांसी के कुछ दिनों बाद तक उनके शव को लटकाया गया था, वह पेड़ आज भी किले के पश्चिमी दरवाजे के नजदीक तथा पोखर से उत्तर यथावत मौजूद है।
शहीदों के मजारों पर लगने वाला हर वर्ष का मेला उनके नसीब में नहीं
…लेकिन यह विडंबना ही है कि आजादी के बाद से हर 15 अगस्त को हम स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाते हैं और 23 अप्रैल को वीर कुंवर सिंह के किले पर विजयोत्सव मनाने आने वाला केंद्रीय-प्रांतीय शासक-प्रशासक इस ऐतिहासिक पेड़ को नजरअंदाज करता रहा है। पहचान का मोहताज बना यह पेड़ भी शायद समझ चुका है कि गुमनामी में रहना ही उसकी नियति है। शहीदों के मजारों पर लगने वाला हर वर्ष का मेला उस के नसीब में नहीं है, बल्कि उस के नसीब में तो बहादुर शाह जफर की वो पंक्तियां हैं- “कोई दो अश्क बहाए क्यों, कोई दो फूल चढ़ाए क्यों बेठिकाने जिनका मजार है।”