लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा ) फॉर्मूले के सहारे आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद के दुर्ग को भेदने में सफल हो सके थे
बिहार में चुनाव का असली रंग चढ़ने लगा है। बिहार की राजनीति में हमेशा से खुलेआम जाति के इर्द-गिर्द सियासी बिसाती बिछाई जाती रही है। राजनीतिक दल भले विकास का सपना दिखाएं, लेकिन केंद्र में जातिवाद का ही बोलबाला दिखता है। नीतीश कुमार ने जब खुद को बिहार में लॉन्च किया तो विकास के साथ जाति आधार बनाने के लिए लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा ) फॉर्मूले के सहारे आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद के दुर्ग को भेदने में सफल हो सके थे।
आजादी से पहले ही बिहार में अगड़ों के खिलाफ ‘त्रिवेणी संघ’ बना था, जिसे कुशवाहा, कुर्मी और यादव ने मिलकर बनाया था
बिहार की राजनीति में तीन दशक से भले ही सत्ता की बागडोर पिछड़ों के हाथ में है, लेकिन लंबे समय तक अगड़ों ने ही राज किया है। आजादी से पहले ही बिहार में अगड़ों के खिलाफ त्रिवेणी संघ बना था, जिसे कुशवाहा, कुर्मी और यादव ने मिलकर बनाया था। बिहार में कुर्मी और यादव सत्ता में रहे हैं लेकिन उसे कुर्सी तक पहुंचाने में कुशवाहा का अहम योगदान रहा है। लालू प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार तक माथे पर राजतिलक कुशवाहा समुदाय के चलते ही लगा है।
1990 में बिहार में त्रिवेणी संघ की सर्वाधिक जनसंख्या वाली बिरादरी यानी लालू प्रसाद को बिहार की सत्ता के नेतृत्व का अवसर मिला। बिहार में पिछड़ा वर्ग की राजनीति के संदर्भ में एक बात जाननी जरूरी है। यादव संख्या बल के मामले में भले ही ज्यादा हों, लेकिन पढ़ाई-लिखाई के मामले में कुशवाहा समाज और कुर्मी समाज (जिन्हें अवधिया कुर्मी भी कहा जाता है) यादवों की तुलना में शुरू से ही काफी आगे रहा है। यही वजह रही है कि यादवों का नेतृत्व स्वीकार करने में इन दोनों समुदायों को एक स्वाभाविक हिचक होती रही है।
नीतीश कुमार ने लव-कुश के सहारे लालू प्रसाद के सामने खुद को स्थापित किया था और चुनौती दी थी
कुर्मी और कुशवाहा के इसी हिचक का राजनीतिक फायदा उठाने के लिए नीतीश कुमार ने पटना के गांधी मैदान में कुर्मी और कोइरी वोटरों की बड़ी रैली की थी, जिसे उन्होंने लव-कुश का नाम दिया था। यह पहली बार था जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के सामने खुद को स्थापित किया था और चुनौती दी थी। इससे साफ जाहिर है कि नीतीश कुमार ने भी नेता बनने के लिए उसी रास्ते को अपनाया जिसे अब तक बिहार के दूसरे नेता अपनाते रहे।
नीतीश कुमार ने 2003 में रेल मंत्री रहते हुए बिहार के मुख्य विपक्षी पार्टी की कुर्सी पर उपेंद्र कुशवाहा को बैठा कर लव-कुश समीकरण को मजबूत किया
नीतीश कुमार ने 2003 में रेल मंत्री रहते हुए बिहार के मुख्य विपक्षी पार्टी की कुर्सी पर उपेंद्र कुशवाहा को बैठाने का काम किया है। कुशवाहा को प्रतिपक्ष का नेता बनाकर नीतीश ने बिहार में लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी (कुशवाहा) समीकरण को मजबूत किया। इस समीकरण की बुनियाद के साथ बीजेपी से गठबंधन की राजनीतिक अहमियत को देखते हुए उनका प्रयोग सफल रहा। इसी फॉर्मूले के जरिए नीतीश ने 2005 में बिहार की सत्ता की कमान संभाली थी।
1994 से लेकर 2015 तक के सफर में एक तरफ कुर्मी समाज अपने चरम सीमा पर पहुंच गया, वहीं कुशवाहा समाज अपने ठगा और पिछलग्गू मानता है
बिहार के सीएम नीतीश कुमार लव-कुश समीकरण के सहारे खुद को सत्ता के करीब रखा है। लेकिन इस समीकरण में लव को जबरदस्त फायदा मिला तो कुश में नाराजगी दिखी। कुशवाहा समाज के लोगों के बीच में आक्रोश इस बात को लेकर है कि एक तरफ 2.5 प्रतिशत संख्या वाला 11 प्रतिशत वालों पर इमोशनल शोषण कर सीएम की कुर्सी पाने का आरोप लगता रहा है। 1994 से लेकर 2005 तक के सफर में एकतरफ कुर्मी समाज अपने चरम सीमा पर पहुंच गया वहीं कुशवाहा समाज पिछलग्गू बनकर रह गया है। यही वजह रही कि उपेंद्र कुशवाहा ने 2011 में राज्यसभा और जेडीयू से इस्तीफा देकर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का गठन कर लिया। 2014 में जीतकर केंद्र में मंत्री बने, लेकिन 2019 के चुनाव से पहले एनडीए से अलग होकर महागठबंधन का हिस्सा बन गए।
उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को 2015 के विधानसभा चुनावों में कुशवाहा बिरादरी का भी साथ नहीं मिला
बता दें कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को 2015 के विधानसभा चुनावों में कुशवाहा बिरादरी का भी साथ नहीं मिला। हालांकि, इस हार से यह नहीं कहा जा सकता कि उपेन्द्र कुशवाहा की कुशवाहा मतदाताओं पर पकड़ नहीं रही है। 1995 के विधानसभा चुनावों में समता पार्टी की भी बुरी हार हुई थी लेकिन नीतीश की कुर्मी वोटरों पर पकड़ को तब भी नजरअंदाज नहीं किया गया था। बीजेपी ने तब नीतीश के समीकरणों को अहमियत देते हुए 1996 में गठबंधन किया था और अच्छे नतीजे भी आए थे। हालांकि, 2019 के चुनाव में कुशवाहा वोट नीतीश कुमार के साथ रहा है।
कुर्मी जाति में नीतीश कुमार की अवधिया संख्या में सबसे कम होते भी नीतीश काल में सबसे ज्यादा फायदा पाने वाली उपजाति है
बिहार में कुर्मी समाज की आबादी करीब 3 फीसदी के करीब हैं। इसमें अवधिया, समसवार, जसवार, घमैला, कोचइसा जैसी कई उपाजतियों में विभाजित है। नीतीश कुमार अवधिया हैं जो संख्या में सबसे कम लेकिन नीतीश काल में सबसे ज्यादा फायदा पाने वाली उपजाति है। बांका, भागलपुर, खगड़िया बेल्ट में जसवार कुर्मी की विधानसभा सीटों पर नतीजे प्रभावित करने की स्थिति में हैं। वहीं, समसवार बिहारशरीफ, नालंदा क्षेत्र में मजबूत स्थिति में हैं। कुर्मी जाति के साथ धानुक को भी संगठित किया जा रहा है। धानुक के वंशज कुर्मी जाति के ही माने जाते हैं, लेकिन ये समुदाय अति पिछड़ा वर्ग में शामिल है। लखीसराय, शेखपुरा और बाढ़ जैसे क्षेत्रों में धानुक काफी मजबूत स्थिति में है। वहीं, कुशवाहा बिरादरी का 4.5 फीसदी वोट है।