अखिल भारतीय कुशवाहा महासभा के खुले अधिवेशन को लोगों ने नकारा
12 नवम्बर को अखिल भारतीय कुशवाहा महासभा का अधिवेशन पटना के कृष्ण मेमोरियल हाल में संपन हुआ। इस अवसर पर विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष सम्राट चौधरी, जदयू संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा, विधान परिषद के पूर्व सदस्य सीपी सिन्हा, नंदकिशोर कुशवाहा, लोजपा नेता अजय कुशवाहा, कांग्रेस के प्रवीण कुशवाहा, राष्ट्रीय अध्यक्ष राकेश महतो, बिहार प्रदेश के अध्यक्ष शंकर मेहता, विजय महतो, नरेश कुमार, अमन कुशवाहा, पूर्व मंत्री नागमणि, श्रीमती रेणू कुशवाहा समेत अन्य गणमान्य नेतागण उपस्थित थे।
कुशवाहा महासभा समाज़ अपनी विचारधारा तय करे : सम्राट चौधरी
विचारधारा के समक्ष संकट है : उपेन्द्र कुशवाहा
14% आबादी वाले कुशवाहा सत्ता से वंचित क्यों : नागमणि
अधिवेशन, समाज के उत्थान एवं समाज के सशक्तिकरण समेत विभिन्न विषयों पर विस्तृत चर्चा के लिए आयोजित किया गया था। लेकिन, कुशवाहा महासभा की नीति और विचारधारा स्प्ष्ट नहीं हो पाई। इस अधिवेशन से बिहार के राजनैतिक गलियारे में क्या संदेश निकल कर गया, समझ से परे है। क्या कुशवाहा समाज़ ने अपनी राजनीतिक हैसियत दिखाई? क्या सत्ता में अपने समाज़ के लोगों के लिये हिस्सेदारी की मांग की? समाज़ के लिये आरक्षण का मुद्दा गौण क्यों रहा? कॉलेजियम सिस्टम पर भी कुछ नहीं बोला गया क्यों? जबकि पटना हाई कोर्ट के वकील अरुण कुशवाहा जी ने कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ आन्दोलन चला रखा है!
अब सवाल उठता है कि जब पार्टी जमीनी कार्यकर्ताओं को छोड़कर एके 47 और एके 56 वालों, शराब माफिया, बालू माफिया, ब्लातकारियों, अपहरण करने वालों, धन कुबेरों और दंगाई को टिकट देकर राजसभा, विधान सभा, विधान परिषद और लोक सभा में भेजती है और संगठन के नेता लोग समाज़ को विचारधारा तय करने की बात करते हैं। ख़ुद अपने स्वार्थ और कुर्सी के लिए पल्टी मार देते हैं। ये कौन-सी विचारधारा कहलाती है, ये भी स्पष्ट किया जाये! कुशवाहा महासभा के 12 नवंबर के पटना में हुए अधिवेशन से, बिहार के राजनीतिक गलियारे में, क्या संदेश निकल कर गया, यह समझ से परे हैं।
लवकुश समीकरण केवल वोट बैंक
बिहार में नीतिश कुमार की राजनीति लवकुश समीकरण के दम पर टिकी है जो कुशवाहों के साथ एक छलावा है। सच तो ये है कि ये कुशवाहा नेताओं को ही क्या अपने स्वार्थ के लिए सभी नेताओं को डैमेज़ किये। राजद भी यही करता है। अब ये समाज़ जाये तो किधर जाये? न घर का है न घाट का। समाज़ की आपस में एकता भी नहीं है कि पोलिटिकल प्रेसर बना पाये। समाज़ के प्रत्येक व्यक्ति का अपना भिन्न मत है। सबका अपना अलग अलग तर्क है। एक स्पष्ट राजनीतिक विचार भी नहीं है। सबका अपना डफली अपना राग है। यही कारण है की समाज़ की ये दशा है।